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    श्री अरविन्द के दर्शन के कुछ पहलू

    श्री अरविन्द के दर्शन के कुछ पहलू

    श्री अरविन्द के दर्शन पर विचार करने से पहले हम परम तत्व को समझाने का प्रयत्न करेंगे..  क्यों कि यह उनके दर्शन का केन्द्रीय विषय वस्तु है . परम तत्व अर्थात The absolute के स्वरूप का पूर्ण रूप से वर्णन कर पाना असम्भव है  . पर उसे एक शब्द " सच्चिदानंद" से उसके मुख्य स्वरूप का वर्णन कर सकते हैं . यह शब्द तीन शब्दों से मिल कर बना है--- " सत् ", " चित " और " आनंद " . सत् वह है जिससे सबकी सत्ता व्यक्त होती है, किन्तु वह सत् मात्र ही नहीं है  वह चित भी है जो कि श्री अरविन्द के अनुसार वह ज्ञान के अतिरिक्त एक शक्ति भी है . वे इसे conciousness-force कहते हैं. यह परमतत्व इनके अलावा आनंद भी है.

     सामान्तया सत् एक निष्क्रिय और निर्गुण स्वभाव वाला समझा जाता है . परन्तु श्री अरविन्द के दृष्टिकोण से वह द्वंदातीत  है. उसे सत-असत ,एक-अनेक , निष्क्रिय- सक्रिय , निर्गुण-सगुण के द्वंदों  के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता इसलिए वह एक ही समय पर सत भी है और भवत भी है अर्थात being भी है और becoming भी . एक होते हुए भी अनेक हो सकता है.

     पाश्चात्य और प्राच्य दोनों दर्शनों में कुछ लोग जैसे ग्रीस के  पार्म्नाईदिज और और भारत के श्री शंकराचार्य , की मान्यता रही है कि परमतत्व तो केवल शुद्ध सत हो सकता है . भवत तो केवल आभास मात्र है . श्री अरविन्द के अनुसार ऐसे विचार अर्धसत्य हैं . परम तत्व दोनों है और दोनों से परे भी .

    शंकराचार्य कहते हैं कि एक और अनेक में , अस्मत् और युष्मत् में प्रमाता और प्रमेय में , सक्रिय और निष्क्रिय में , ससीम और असीम में , शाश्वत और कालिक में भेद अपरिहार्य है . परन्तु श्री अरविन्द इसको अमान्य करते हैं . यद्यपि वे तत्व और प्रपंच के अंतर को अस्वीकार नहीं करते परन्तु उनका कहना है कि प्रपंच तत्व की ही अभिव्यक्ति है . उसे मिथ्या नहीं कहा जा सकता . प्रपंच की अनेकता और ससीमता तत्व पर आरोपित नहीं होते . बल्कि वे उससे ही उत्पन्न हुए हैं . ब्रह्म के लिए " एक"  शब्द का अर्थ संख्या वाचक नहीं है , उसे पूर्णता के अर्थ में लिया जाना चाहिए . उसे अनेक के विरुद्ध नहीं समझा जाना चाहिए.

     चित् एक शक्ति है उसे वह केवल ज्ञान मात्र ही नहीं है . जैसे वह निष्क्रिय है वैसे वह सक्रिय भी है उसकी निष्क्रियता में भी शक्ति ( force) उसी प्रकार विद्यमान है जैसी सक्रियता मे . ब्रह्म और शक्ति दो नहीं बल्कि एक है . शक्ति ब्रह्म में किसी विशेष समय में उत्पन्न नहीं होती बल्कि वह सदैव साथ रहती है . बुद्धि के क्षेत्र में एक और अनेक, सत् और भवत् शाश्वत और कालिक परस्पर विरोधी दिखाई देते हैं अर्थात उसमे एक सत्य होगा तो दूसरा मिथ्या होगा .  ब्रह्म के लिए "सत्" ,"एक" और "शाश्वत " मिथ्या नहीं हो सकते बल्कि इनके विपरीत " भवत् ", "अनेक " और "कालिक" ही मिथ्या हो सकते हैं . यही शंकराचार्य ने भी कहा है . हम बुद्धि से इसका हल नहीं निकाल सकते . ब्रह्म मानसिक अवधारणाओं से परे है . मानव चित्त  के लिए जो परस्पर एक दूसरे के लिए विरुद्ध दिखाई देता है , आवश्यक नहीं कि वह ब्रह्म के लिए भी परस्पर विरुद्ध हों . चूंकि हमारा चित्त ससीम है इसलिए उसके द्वारा असीम को कैसे समझा जा सकता है .  उसका अपना ही अपूर्व तर्क है. सत्य तो यह है , एक और अनेक इत्यादि अवधारणाए  प्रतिकूल या विपरीत ( contraries )  हैं , विरोधी ( contradictories ) नहीं हैं . परमतत्व सभी प्रतिकूलताओं का स्रोत भी है और उनसे परे भी है . इन प्रतिकूल द्वन्दों में से एक को मिथ्या मान लेने से यह ब्रह्म की  उसकी अखंडता और पूर्णता में न देखने के तुल्य है.

     अब प्रश्न यह उठाया जा सकता है कि ब्रह्म जो कि काल से परे है अर्थात अकाल है वह  काल में कैसे भासमान होता है ? जो देश से परे हो उसे देश में कैसे सीमित किया जा सकता है ? असीम से ससीम देशकाल की सृष्टि किस प्रकार संभव है ? श्री अरविन्द कहते हैं कि ब्रह्म की एक अद्भुत शक्ति है जिसे हम अतिमानस कह सकते है इसी के द्वारा असीम , ससीम में व्यक्त होता है इसी अतिमानस को वैदिक ऋषियों ने माया कहा है ऋग्वेद में इसे प्रज्ञा भी कहा गया है . अतिमानस मानवीय मानस का अवर्धित संस्करण नहीं है . वह गुण और शक्ति में मानवीय मानस से भिन्न भी है .वह ऋत चित् भी है . जिसमें  सत्य , ऋत और बृहत् तीन अवधारणाए निहित हैं .वह सच्चिदानंद और विश्व के बीच की कड़ी है.
      अतिमानस परमसत्य के सत्य को बनाये रखता है . मन , जीवत्व और पदार्थ उसकी निम्न स्तर की अभिव्यक्तियाँ हैं . अतिमानस मानवीय मन से सर्वथा भिन्न है . मन वस्तुओं को पृथक करके जानने का प्रयत्न करता है वह पूर्ण से पृथक कर लेता है जिसके कि वे अंग हैं और वह उन्हें पूर्ण से ,समग्र से विभक्त कर देता है और उन्हें भिन्न समझता है . उसके लिए सम्पूर्ण एक समुदाय मात्र है . इसलिए अनन्त उसकी समझ से परे है.

     मनुष्य की चेतना की एक उच्च अवस्था भी होती है जिसे अन्तःप्रज्ञा कहते हैं जो उच्चतर स्तर के सन्देश को मन तक पहुंचाती है किन्तु सामान्य मन के हस्तक्षेप के कारण वह प्रभावी नहीं हो पाता . वह अधिकतर मानसिक क्रिया से मिश्रित और प्रभावित हो जाता है. इसलिए यह चेतना की बहुत उच्च अवस्था नहीं कही जा सकती . श्री अरविन्द के अनुसार यह उच्च ज्ञान है सर्वोच्च नहीं . यह उच्च ज्ञान होते हुए भी मानस ज्ञान की परिधि में ही है.
         यद्यपि अन्तःप्रज्ञा मानस से उच्चतर होती है तथापि वह अस्थिर ,आकस्मिक और क्षणिक होती है . इसलिए वह मानस और अतिमानस के बीच की कड़ी नहीं बन सकती . चेतना की एक ऐसी भी अवस्था है जो अतिमानस के साथ सीधा सम्बन्ध जोडती है उसे श्री अरविन्द अधिमानस (overmind ) कहते हैं . यह मानस के अज्ञान मिश्रित ज्ञान और अतिमानस के सत्यपूर्ण ज्ञान के बीच की कड़ी है. यद्यपि अधिमानस मानस ज्ञान का सर्वोच्च स्तर है फिर भी वह अज्ञान से सम्बद्ध है . उसमे अतिमानस जैसी पूर्णता नहीं है . वह भी परमसत्य के भिन्न विभावों को पृथक कर देता है. अतिमानस में सद्वस्तु के सभी प्रकार सामंजस्य पूर्ण से समग्रता में गुंथे हुए रहते है परन्तु अधिमानस में यह स्थिति बदल जाती है. जैसे अतिमानस स्तर पर पुरुष और प्रकृति सत्य के दो विभाव मात्र हैं ,अधिमानस स्तर पर वे भिन्न हो जाते हैं. फिर भी अधिमानस साधारण मानस से उच्चतर चेतना है जो मानस की भेद की अपरिहार्यता से अलग सहसम्बद्ध ( co-reletive ) तथ्य को पहचानता है . मानस जिसको प्रतिकूल समझता है वह अधिमानस (overmind ) के लिए परस्पर पूरक है.

       --- ओशो  बिपिन